हिन्दी सिनेमा की निंदा का सिलसिला आगे बढ़ते हुए लीजिये प्रस्तुत है कुछ सफ़ल हिन्दी फिल्मों तथा उनकी प्रेरणास्रोत (दरअसल नक़ल स्रोत) विदेशी फिल्मों का कच्चा चिट्ठा| यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि ये सभी फिल्में अपने दौर की श्रेष्ठ हिन्दी फिल्मों में गिनी जाती हैं और सामान्यतया हिन्दी फिल्मों के आलोचक भी इन्हें इस नक़ल के आरोप से बारी कर देते हैं| साथ में थोड़ा कहानी का तुलनात्मक विश्लेषण भी दिया गया है|
शोले (१९७५): सेवेन समूराई (१९५४) > मेग्निफिसेंट सेवेन (१९६०)
शुरू करते हैं हिन्दी फ़िल्म जगत की सफलतम फिल्मों में से एक शोले से| एक गाँव के लोगों द्वारा डाकुओं से अपनी रक्षा के लिए कुछ शहर के तथाकथित बदनाम और नाकारा लोगों को किराये पर बुलाना| यह कहानी मूलतया सुप्रसिद्ध जापानी फ़िल्मकार अकीरा कुरोसावा के दिमाग की उपज थी जिन्होंने १९५४ में सेवेन समुराई (जापानी में इसका नाम था “सिचिनिन नो समुराई”) नामक फ़िल्म बनायी| १९६० में इसी फ़िल्म का हालीवुड रीमेक मेग्निफिसेंट सेवेन आयी जिसमें बस जापानी गाँव के स्थान पर एक अमरीकी गाँव कुछ प्रसंगोचित फेरबदल के साथ दिखाया गया| इस फ़िल्म में एक जापानी गाँव पे डकैतों का प्रकोप दिखाया गया है, लगभग गब्बर सिंह जैसा| गाँव का मुखिया शहर जाकर सात लोगों को भर पेट खाने और धनालाभ का प्रस्ताव देकर गाँव बुला कर लाता है| वैसे इसमें न तो ठाकुर जैसे किसी किरदार को ज्यादा प्राथमिकता दी थी और न ही वीरू और जय जैसे किसी योद्धा को| बसन्ती जैसा भी कोई किरदार नहीं है और गानों का तो सवाल ही नहीं उठता| अब तक शायद आपके दिमाग़ में शोले की सभी मौलिकताएं साफ़ हो गयी होंगी|
सत्ते पे सत्ता (१९८२): सेवेन ब्राइड्स फॉर सेवेन ब्रदर्स (१९५४)
घर से दूर फार्म हाउस में सात असभ्य भाई रहते हैं| सबसे पहले बड़ा भाई शादी करता है; भाभी आकर बाकियों को इंसान बनाती है| सभी फ़िर जाकर अपनी अपनी महबूबाओं को उनके घर से उठा कर ले आते हैं| यहाँ तक कहानी लगभग एक जैसी और हाँ क्योंकि सेवेन ब्राइड्स फॉर सेवेन ब्रदर्स एक म्यूजिकल फ़िल्म थी इसलिए गाने भी लगभग एक ही तर्ज पर हैं| सत्ते पे सत्ता की मौलिकता आती है जब रवि आनंद (अमिताभ बच्चन) का हमशक्ल बाबू आता है|
संघर्ष (१९९९): द साइलेंस ऑफ़ द लैम्ब्स (१९९१)
एक क्रमवार खून करने वाला अज्ञात हत्यारा… उसका पीछा कर रही एक महिला पुलिस… जेल में बंद एक कुशाग्र बुद्धि वाला व्यक्ति जोकि हत्यारे के दिमाग को पढ़के उसका अगला षडयंत्र बता सकता है… लगभग एक जैसा ही घटनाक्रम दोनों फिल्मों में देखने को मिलता है| बस जोडी फोस्टर ने प्रीती जिंटा से कहीं अधिक निडर और साहसी किरदार निभाया है और संघर्ष में आशुतोष राणा ने एक पारलैंगिक (transsexual) की भूमिका नहीं निभाई है|
मुन्नाभाई एम. बी. बी. एस. (२००३): पैच एडम्स (१९९८)
कहानी का सार यदि छोड़ दें तो निर्देशक ने पूरी कोशिश की है की एक नयी कहानी पेश की जाय| पैच एडम्स के साथ कोई सर्किट जैसा पुछल्ला नहीं था और पैच एडम्स वाकई में एक चिकित्सक बनना चाहता था और अंत में बना भी| पैच एडम्स में जहाँ फ़िल्म के संदेश पर ही ध्यान केंद्रित किया गया था जिसकी वजह से फ़िल्म ज्यादा संगीन है जबकि मुन्नाभाई एम. बी. बी. एस. को एक सफल व्यावसायिक फ़िल्म बनाने के उद्देश्य से मनोरंजन की दृष्टि से सारा मसाला डाला गया है|
सरकार (२००५) : गॉडफादर (१९७२)
सरकार वो ऐसी पहली फ़िल्म है जिसमें फ़िल्म निर्माता द्वारा फ़िल्म के प्रारंभ में ही स्वीकार किया गया है कि यह फ़िल्म गॉडफादर से प्रेरित है| चाहे यह राम गोपाल वर्मा ने मजबूरी में ही किया हो पर इस कदम के लिए मैं उनकी दाद देता हूँ| इस फ़िल्म में भी मौलिकता के नाम पर कुछ ख़ास नज़र नहीं आता| सुनने में आया था कि सरकार की सफलता के बाद रामू गॉडफादर-२ की तरह ही सरकार-२ भी बनाना चाहते थे| पता नहीं चाहत को क्या हुआ?
वैसे तो हिन्दी फ़िल्म जगत में नकलची फिल्मों की भरमार है पर इन हिन्दी फिल्मों को देखकर मैं काफ़ी प्रभावित हुआ था या फ़िर यूँ कहा जाय कि ये सभी फिल्में बड़ी ही खूबसूरती से टोपी गयीं हैं| …वैसे यह भी तो एक कला ही है|