सरफ़रोशी की तमन्ना (गुलाल)

मार्च 27, 2009

हाल में ही प्रदर्शित हिन्दी फ़ीचर फ़िल्म गुलाल का संगीत काफ़ी प्रभावशाली है। आज के दौर पर कटाक्ष ये छोटा सा छन्द जोकि बिस्मिल के “सरफ़रोशी की तमन्ना” का एक्स्टेंशन है, मुझे बहुत अच्छा लगा। आप भी सुनिये –

ओ रे बिस्मिल काश आते आज तुम हिन्दोस्ताँ
देखते कि मुल्क़ सारा ये टशन में थ्रिल में है

आज का लौंडा ये कहता हम तो बिस्मिल थक गये
अपनी आज़ादी तो भइया लौंडिया के तिल में है

आज के जलसों में बिस्मिल एक गूँगा गा रहा
और बहरों का वो रेला नाचता महफ़िल में है

हाथ की खादी बनाने का ज़माना लद गया
आज तो चड्ढी भी सिलती इंगलिसों की मिल में है


एक कटु अनुभव…

मार्च 17, 2009

किसी ने सही कहा है कि

“Remarkable thing about the life is that
it can never be so bad that it can not get worse.”

जीवन कई ऐसे पल आते जब इस बात के महत्त्व और गूढ़ता का आभास होता है। परसों मेरे साथ कुछ ऐसा ही घटित हुआ। यह मेरी चौथी कलकत्ता यात्रा थी। मेरी पिछली यात्राओं का अनुभव कुछ खास सुखद नहीं रहा, कभी ममता बनर्जी का बंगाल बन्द तो कभी झारखण्ड बन्द, कभी भीषण उमस भरी गर्मी और कभी खराब आतिथ्य। परन्तु इस बार कानपुर से कलकत्ता यात्रा भी अच्छी थी, वहाँ का मौसम भी अच्छा था और कॉन्फ्रेंस का आयोजन भी वैदिक विलेज नामक रिसॉर्ट में काफी अच्छा रहा। एक बार को लगा कि इस बार मिथक टूट गया परन्तु लौटते समय सब बराबर हो गया। हमारा (मैं और मेरे सहयोगी) लौटने का टिकट हावड़ा राजधानी में 8 और 9 वेटिंग था जो कि रिज़र्वेशन माफ़िया के चलते केवल 2 और 3 वेटिंग तक ही आ सका। जिस ट्रेन में 500 से अधिक सीटें हो उसमें 9 वेटिंग पूरा न होना काफी अस्वाभविक था। खैर जैसे ही स्टेशन में घुसे हमें कई रिज़र्वेशन माफ़िया के एजेंटों ने घेर लिया जैसे हमारे चेहरे पे लिखा हो कि इनके पास टिकट नहीं है। क्योंकि ट्रेन छूटने में अभी पर्याप्त समय था इसलिये हम लोगों ने कुछ समय भ्रष्टाचार में भागी बनने या न बनने का निर्णय लेने में गुजारा। बचपन में हमें सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र की कहानी सुनाई जाती है परन्तु उस कहानी में एक समस्या यह है कि जितना कष्ट उन्होंने सत्य का साथ देने में झेला उसके अनुरूप उन्हें कोई फल नहीं मिला। शायद यही कारण है कि आज लोग ये तो मानते हैं कि सत्य का साथ देना एक अच्छी बात है पर राजा हरिशचन्द्र की हद तक सत्य का साथ देना बेवकूफी माना जाता है। आखिरकार हमने भी राजा हरिशचन्द्र न बनते हुये ड्योढ़े दाम में उसी ट्रेन से मुगलसराय तक का उपलब्ध टिकट खरीदा और सोचा कि आगे देख लेंगे जो होगा। कुछ देर में देखा टीटी महोदय को बड़े बड़े लोगों के फोन आ रहे हैं और अन्य लोग भी बंगाली में बोलकर उन्हें पटाने की कोशिश कर रहें हैं। हमारे पास ये सब कुछ नहीं था इसलिये एक बार प्रयास किया और उनसे कहा कि भई हमारा टिकट क्लियर नहीं हुआ और कारण आप से अधिक कौन जान सकता है। हम आई आई टी से हैं। महानुभाव शिक्षित थे अर्थात उन्हें आई आई टी के बारे में पता था और शायद यह भी कि ये ज्यादा बवाल नहीं करेंगे। बोले बेटा “आई नो, यू आर द फ़्यूचर ऑफ़ दिस कंट्री; बट आई कैन नॉट गिव यू द बर्थ ऐज़ पर द रूल्स …” और भी कुछ नियम कानून की और कुछ चिकनी चुपड़ी बातें जो देखा जाय अपने आप में कुछ भी गलत नहीं थीं। आशा की कोई किरण न देख हमने सोचा कि अपने शुभेच्छुओं को ही लपेटा जाय, यद्यपि आत्मा पूरी तरह गवाही नहीं दे पा रही थी। दो चार फोन घुमाये, हिदायत मिली कि मुगलसराय उतरकर किसी और ट्रेन में देख लें कुछ सहायता वहाँ का रेल स्टाफ कर देगा। रात एक बजे मुगलसराय उतरकर आने वाली कई ट्रेनों को टटोला और अन्त में चार बजे एक ट्रेन में जगह मिली। हम ये सोच कर सो गये कि चलो ज्यादा परेशानी नहीं हुयी चार पाँच घण्टा देर से सही पर कानपुर पहुँच तो जायेंगे। कुछ समय बाद टी टी महोदय आये और हमारा टिकट और चेहरा देख कर जाने लगे। हमने कहा स्लीपर का टिकट बना दीजिये तो बोले आप वहीं हैं न जिन्हें उन्होनें बैठाया था, कोई बात नहीं हम साथ तो चल ही रहे हैं… आप आराम से सोइये। हम भी पुनः एक बार भ्रष्टाचार बढ़ाते हुये शान्ति से सो गये। पुनः जब आँख खुली तो देखा कि एक दूसरे टी टी महोदय हमसे टिकट माँग रहे हैं। पता चला कि इलाहाबाद में स्टाफ बदल गया है। और इन महोदय को पिछले टी टी ने हमारे बारे में कोई जानकारी नहीं दी, (पता नहीं फिर उन्होंने हमें ढूढ़ा कैसे?) बोले चार सौ रुपये निकालिये। हमने कहा कि चार सौ किस बात के हम जगह पूछ कर बैठे थे आप टिकट बनाइये। बोले टिकट बनेगा तो ढाई सौ रुपये पेनाल्टी के साथ। यहाँ पर बात सिर्फ पैसों की नहीं थी क्योंकि हमें इस बात का पूरा एहसास था कि ये टी टी हमें जान-बूझ कर परेशान कर रहा है। मजबूर होकर हमें एक बार फिर फोन घुमाना पड़ा। थोड़ी वर्तालाप के बाद मामला निपटा और टी टी भाषा भी काफी कुछ सभ्य हो गयी। अगले एक घण्टे तक हम लोग इन्तजार करते रहे कि अब और क्या बुरा हो सकता है। ईश्वर की कृपा से उसके बाद सब यथावत चला और हम घर पहुँच गये। उसके बाद काफी समय तक मन अशान्त रहा सोचते रहे कि जो कुछ भी हमने किया कितना न्यायसंगत था और कितना तर्कसंगत। निश्चय ही इसका कोई उत्तर नहीं है हमारे पास, बस सोचा कि थोड़ा लिख दें तो मन हल्का हो जायेगा।

खैर इतना समझ में आया कि हरिशचन्द्र की राह पर न चलने पर भी उतनी ही मुसीबतें आ सकतीं हैं इसलिये कोई भी निर्णय लेते समय उसके दूरगामी परिणामों को ही ध्यान में रखना चाहिये, राह में मुसीबतें तो आती ही रहेंगी।