मीना कुमारी : I Write I Recite

जून 26, 2008

रचना और स्वर: मीना कुमारी
संगीत: ख़य्याम

1. चांद तन्‍हा है आसमां तन्‍हा

2. आबलापा कोई इस दश्त में आया होगा

3. यूँ तेरी रहगुज़र से दीवाना वार गुज़रे

4. मेरा माँझी मेरी तन्हाई का अंधा शिग़ाफ़

5. ये नूर कैसा है राख़ का सा रंग पहने

6. आग़ाज़ तो होता है अंज़ाम नहीं होता

7. पूछ्ते हो तो सुनो कैसे बसर होती है

8. टुकड़े टुकड़े दिन बीता धज्जी धज्जी रात मिली


तुम्हें दिल्लग़ी भूल जानी पड़ेगी

जून 25, 2008

स्वर: नुसरत फ़तेह अली ख़ान

तुम्हें दिल्लग़ी भूल जानी पड़ेगी, मोहब्बत की राहों में आकर तो देखो

तड़पने पे मेरे न फिर तुम हँसोगे, कभी दिल किसी से लगा कर तो देखो

होठों के पास आये हँसी क्या मज़ाल है, दिल का मुआमला है कोई दिल्लग़ी नहीं

ज़ख़्म पे ज़ख़्म खा के जी अपने लहू के घूंट पी, आह न कर लबों को सी, इश्क़ है दिल्ल्ग़ी नहीं

दिल लगा कर पता चलेगा तुम्हें, आशिक़ी दिल्लगी नहीं होती

कुछ खेल नहीं है इश्क़ की लाग, पानी न समझिये आग है आग

ख़ूँ रुलायेगी ये लगी दिल की, खेल समझो न दिल्लगी दिल की

ये इश्क़ नहीं आसाँ बस इतना समझ लीजै, इक आग़ का दरिया है और डूब के जाना है

वफ़ाओं की हमसे तवक्को नहीं है मगर एक बार आज़मा कर तो देखो

ज़माने को अपना बना कर तो देखा हमें भी तुम अपना बनाकर तो देखो


चलत मुसाफ़िर मोह लियो रे

जून 18, 2008

स्वर: मन्ना डे

उद्धृत: http://aksharavanam.blogspot.com/2008/03/blog-post_1820.html

चलत मुसाफ़िर मोह लियो रे पिंजड़े वाली मुनिया

उड़ उड़ बैठी हलवइया दुकनिया
बरफ़ी के सब रस ले लियो रे पिंजड़े वाली मुनिया

उड़ उड़ बैठी बजजवा दुकनिया
कपड़ा के सब रस ले लियो रे पिंजड़े वाली मुनिया

उड़ उड़ बैठी पनवड़िया दुकनिया – २
बीड़ा के सब रस ले लियो रे पिंजड़े वाली मुनिया


लागा चुनरी में दाग

जून 17, 2008

रचना: साहिर लुधियानवी
स्वर: मन्ना डे

लागा चुनरी में दाग छुपाऊँ कैसे
चुनरी में दाग छुपाऊँ कैसे घर जाऊँ कैसे

हो गयी मैली मोरी चुनरिया कोरे बदन सी कोरी चुनरिया
जाके बाबुल से नजरें मिलाऊँ कैसे घर जाऊँ कैसे

भूल गयी सब वचन विदा के खो गयी मैं ससुराल में आ के
जाके बाबुल से नजरें मिलाऊँ कैसे घर जाऊँ कैसे

कोरी चुनरिया आत्मा मोरी मैल है मायाजाल
वो दुनिया मोरे बाबुल का घर ये दुनिया ससुराल
जाके बाबुल से नजरें मिलाऊँ कैसे घर जाऊँ कैसे


कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे

जून 14, 2008

रचना: गोपालदास ‘नीरज’
स्वर: मोहम्मद रफ़ी

उद्धृत: http://hindipoems.wordpress.com/2005/09/27/

स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई
पात-पात झर गये कि शाख़-शाख़ जल गई
चाह तो निकल सकी न पर उमर निकल गई
गीत अश्क बन गए छंद हो दफन गए
साथ के सभी दिऐ धुआँ पहन पहन गये
और हम झुके-झुके मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा
क्या जमाल था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ़ जमीन और आसमाँ उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा
एक दिन मगर यहाँ ऐसी कुछ हवा चली
लुट गयी कली-कली कि घुट गयी गली-गली
और हम लुटे-लुटे वक्त से पिटे-पिटे
साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ
होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ
हो सका न कुछ मगर शाम बन गई सहर
वह उठी लहर कि ढह गये किले बिखरबिखर
और हम डरे-डरे नीर नयन में भरे
ओढ़कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

माँग भर चली कि एक जब नई नई किरन
ढोलकें धुमुक उठीं ठुमक उठे चरन-चरन
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन चली दुल्हन
गाँव सब उमड़ पड़ा बहक उठे नयन-नयन
पर तभी ज़हर भरी गाज एक वह गिरी
पुँछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी
और हम अजान से दूर के मकान से
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।