हमारी योजना के अनुसार 5000 की जनसंख्या से अधिक वाले सभी गाँवों में एक माध्यमिक विद्यालय और सभी जनपदों में रिहायशी महाविद्यालय खोले जाने की जरूरत है। इस प्रकार से करीब 25 हजार माध्यमिक और करीब 1 हजार महाविद्यालयों खोलने की जरूरत होगी। क्योंकि योजना को इतने बड़े स्तर पर शुरू नहीं किया जा सकता इसलिये हो सकता कि इस स्तर तक आने में इसे 10-15 वर्ष लग जायें। पर उसके बाद की एक पीढ़ी में (25 वर्ष) हम इस माध्यम से 20 करोड़ लोगों को माध्यमिक स्तर तक 1 करोड़ लोगों को महाविद्यालय स्तर की शिक्षा दे चुके होंगे। यहाँ पर गौरतलब बात यह है कि ये सभी 20 करोड़ लोग युवा होंगे और तर्कसंगत सोचने में सक्षम होंगे। किसी भी देश उन्नति के लिये यह एक आधारभूत स्तम्भ है। इन विद्यालय में नयी पीढ़ी का निर्माण कैसे होगा और इनमें ऐसा क्या होगा जिसे देने में आज के सरकारी स्कूल और निजी तथा राजनीतिक संस्थाओं से जुड़े विद्यालय समर्थ नहीं हो पा रहे हैं? सर्वप्रथम हमें आज के युवाओं को यह समझाने की आवश्यकता है कि धर्म, जाति, क्षेत्र इत्यादि सब तुच्छ बातें हैं इनका प्रयोग केवल वास्तविक समस्याओं पर पर्दा डालने के लिये किया जाता रहा है। मुझे नहीं लगता कि बीती सदी में भारत को धर्म से अधिक नुकसान और किसी ने पहुँचाया है। एक बात मैं साफ कर देना चाहता हूँ कि न तो मैं स्वयं नास्तिक हूँ और न ही हमारे इन विद्यालयों में नास्तिकता को प्रोत्साहित किया जायेगा। सिर्फ एक बात यह है कि यदि सभी धर्म हिंसा का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में विरोध करते हैं तो धर्म ही फिर हिंसा का कारण क्यों बनता है। अभी धर्म पर और बातें न करते हुये आगे बढ़ते हैं। इन विद्यालयों के माध्यम से छात्रों को सामाजिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक शिक्षा दी जायेगी। विश्व इतिहास में लगभग सभी समस्याओं के इतने उदाहरण हैं कि हमें अब उनसे निपटने के लिये अपने ऊपर प्रयोग करने की कोई आवश्यकता नहीं है। छात्रों को अनुभव प्रदान करने के लिये उन्हें उनके और किसी दूरस्थ गाँव में छुट्टियों में प्रोजेक्ट करने के लिये भेजा जा सकता है, जिससे उन्हें अपने और दूसरे समुदाय के लोगों की भावनाओं और जीवन शैली के बारे में जानने को मिलेगा साथ ही वह दूसरों की भावनाओं को अपनाना सीख पायेगा। भारत एक बड़ा और अपार भिन्नताओं वाला एक देश है। यदि हम लोग इसी तरह से जाति, धर्म और क्षेत्र के नाम पर लड़ते रहे तो इसे तोड़ना बहुत आसान हो जायेगा। जरूरत है हमें आपस में एक दूसरे की उपयोगिता और महत्त्व का अहसास कराने की।
इस योजना के कार्यान्वयन में बहुत से धन की आवश्यकता होगी और सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि धन उन्हीं लोगों के पास है जिन्हें लगता है इस योजना के सफल होने से सबसे अधिक नुकसान उनका है। परन्तु वास्तविकता शायद यह नहीं है। भारत आज अपने सामर्थ्य से कहीं कम प्रगतिशील और उत्पादकता में कहीं पीछे है। यदि आज हमारी शक्ति क्षेत्रीय, जातीय, साम्प्रदायिक और राजनैतिक भेद भुलाकर आपस में ही उलझे रहने के बजाय आपस में हाथ बँटाकर कार्य करे तो इसमें सभी का लाभ है। पूँजीपतियों को और अधिक धनालाभ होगा, गरीब भी भूखे नहीं मरेंगे। सभी का जीवन स्तर सुधरेगा और राजनीतिक दल लोगों को आपस में लड़ा कर वोट लेने की कोशिश करने के बजाय कुछ अच्छा काम करके वोट लेने की कोशिश करेंगे।
यही हमारे भारत के नवनिर्माण का सपना है। और यदि भारत को इस सदी में एक विश्व शक्ति बनना है तो निश्चय ही हमें क्षेत्र, जाति और धर्म से ऊपर उठना होगा।
आज जितनी सरकारी पाठशालाएं हैं, उनकी दशा देखते हुए नहीं लगता कि आपका सपना साकार होगा। जो लोग इन पाठशालाओं को चलाएंगे, वो भी तो ईमानदार होना चाहिए।
इस लेख के पीछे मेरा मकसद इसका साकार होना या न होना नहीं था। इसके माध्यम से मैने यह पहलू प्रस्तुत करने की कोशिश की है कि भले हि यह एक सपना हो और इसका साकार होना मुश्किल हो पर असंभव तो अवश्य नहीं लगता। हमारे देश के कर्णधारों को यह बहुत पहले सोचना चाहिये था। अभी भी कोई देर नहीं हुयी है।
आप बिल्कुल सही और तर्कसंगत कह रहे हैं। समस्या सिर्फ इस स्वप्न के क्रियांवयन की है। अच्छे चरित्र के कोर ग्रुप के कर्मठ लोग चाहियें।