बुल्ला की जाणा मैं कौन (वडाली बन्धु)
घूँघट चक लै सजना (नुसरत फ़तेह अली ख़ान)
घूँघट चक लै सजना (वडाली बन्धु)
तेरे इश्क़ नचाया (आबिदा परवीन)
बुल्ला की जाणा मैं कौन (वडाली बन्धु)
घूँघट चक लै सजना (नुसरत फ़तेह अली ख़ान)
घूँघट चक लै सजना (वडाली बन्धु)
तेरे इश्क़ नचाया (आबिदा परवीन)
स्वर: अताउल्लाह ख़ान
दूरों दूरों सानु तरसांदे ओ, असाँ बुलाये ते नि आंदे ओ
इश्क़ में हम तुम्हें क्या बतायें
सब माया है
बालों बतियाँ वे माही
एक अरसे से सोच रहा था इस विषय पर लिखने की पर आज अनूप जी के लेख ने उत्प्रेरक का कार्य किया। जब भी हम किसी आत्महत्या की ख़बर सुनते हैं तो सबसे पहले दिवंगत को दोषी ठहरा देते हैं। बेवकूफ़ था, जीवन में एक चीज नहीं मिली तो क्या हुआ जिन्दग़ी इतने पर ख़त्म थोड़े ही हो जाती है। पर शायद इससे कुछ अधिक गहराई चाहिये होती है उस व्यक्ति की मानसिकता समझने के लिये। कुछ समय पहले डेविड ह्यूम की कृति “ऑन सुइसाइड” पढ़ी, लेखक के अनुसार
पिछले 10 वर्षों में दुर्भाग्यवश 7 या 8 ऐसी दुःखद घटनायें मेरे इर्द गिर्द घटित हुयीं। इनमें से कुछ लोगों से मेरा परिचय था और किसी के लिये भी मैं कम से कम उसी को एक मात्र दोषी नहीं मान सकता। कहीं माँ बाप की अतिशय आकांक्षाएं तो कहीं व्यक्तिगत उम्मीदों पर स्वयं या किसी और का ख़रा न उतरना। पर ऐसा नहीं है कि आज से 20 साल पहले ये समस्याएँ नहीं थीं या फिर आत्महत्याएँ नहीं होती थीं। हाँ आज की पीढ़ी की सहनशक्ति अवश्य ही कम हुयी है। कारण एक नहीं कई हो सकते हैं। पहला तो सूचना संचार के इस युग में आप को ये तो पता होता है कि देश दुनिया में क्या हो रहा है पर अपना पड़ोसी किस हाल में है ये नहीं। यहाँ तक कि घर वालों के पास भी समय नहीं बचा है एक दूसरे का सुख दुःख बाँटने का। अपना ही उदाहरण देता हूँ बी टेक के समय हॉस्टल में इन्टरनेट नहीं था तो दिन भर में कैंटीन, मेस, बालकनी पर कम से कम 40-50 लोगों से मिलना होता था और लगभग सभी सहपाठियों की ख़बर रहती थी। पर आजकल मित्र मंडली 5-7 तक सीमित हो गयी है। पिछ्ले महीने एक दिन शाम को बत्ती गुल हुयी तो पता चला कि छात्रावास में आजकल कौन रह रहा है, कई लोगों से तो महीनों बाद मुलाकात हुयी। इन सभी तथ्यों को पिछले 20 सालों में आये सामाजिक परिवर्तन से जोड़ा जा सकता है। यदि हमने इससे आर्थिक संपन्नता का भोग किया है तो इसके दुश्परिणामों को भी हमें ही झेलना होगा। अभिभावकों को समझना पड़ेगा कि उनका पुत्र या पुत्री सिर्फ़ उनका सोसल स्टेटस सिंबल मात्र नहीं है। मुश्किल परिस्थितियों में हम परिवार जनों और मित्रों का सहारा लेते हैं और इन दोनों की ही अनुपलब्धता में तीसरे विकल्प के चयन में लोगो को अधिक समय नहीं लगता।
पिछ्ले दिनों मैं कानपुर के एक मनोचिकित्सक से इस विषय में बात कर रहा था उनके अनुसार एक बार जब ऐसी घटनाएं शुरू होती हैं तो जैसे चेन रिएक्शन शुरु हो जाती है क्योंकि लोगों को अपनी समस्याओं का एक सम्भावित हल आत्महत्या में दिखने लगता है। कोई कुछ ख़ास कर नहीं सकता इसे रोकने के लिये। इस तरह की घटनायें स्वयं ही कुछ वर्षों में मंद पड़ जाती हैं। अब यदि कोई कुछ नहीं कर सकता इस बारे में तो फिर इस विषय पर लिखने का भी कोई औचित्य नहीं है। यद्यपि मैं मनोचिकित्सक महोदय से पूर्णतया सहमत नहीं हूँ क्योंकि भले ही इस समस्या को सीधे किसी को परामर्श देकर नहीं सुलझाया जा सकता पर यदि इसके मूल तक पहुँचा जा सके तो अवश्य की कुछ सकारात्मक परिणाम आ सकते हैं।
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यह लेख मैंने आई आई टी कानपुर में हुयी दुर्घटनाओं के परिदृश्य में लिखा है। हो सकता है कि अन्यत्र परिस्थितियाँ भिन्न हों।
पिछले सप्ताहांत पर आई आई टी कानपुर के रासायनिक अभियांत्रिकी विभाग द्वारा आयोजित द्विदिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन केम्फ़ेरेन्स 08 में रोजे ख़ान मंगनियर मंडली द्वारा एक राजस्थानी लोकगीतों का कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया। मंगनियर स्वयं को राजपूतों का वंशज मानते हैं और थार (जैसलमेर और बाड़मेर) के सर्वोत्तम संगीतकारों मे से हैं। एक और ध्यान देने योग्य पहलू यह है कि हमेशा से ही इनके संरक्षक हिन्दू रहे हैं परन्तु मंगनियर सदैव मुस्लिम होते हैं।
प्रस्तुत है इसी कार्यक्रम के कुछ अंश:
महाराज गजानन आओ रे, म्हारी मंडली में रंग बरसाओ रे
निंबुड़ा निंबुड़ा
दमादम मस्त क़लन्दर
रंगीलो म्हारो
राजस्थानी अलगोजा (दो बाँसुरी)
राजस्थानी बीन
रचना: कैफ़ी आज़मी
स्वर: भूपिन्दर, रफ़ी, तलत महमूद और मन्ना डे
होके मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा
ज़हर चुपके से दवा जानके खाया होगा
दिल ने ऐसे भी कुछ अफ़साने सुनाए होंगे
अश्क़ आँखों ने पिये और न बहाए होंगे
बन्द कमरे में जो खत मेरे जलाए होंगे
एक इक हर्फ़ जबीं पर उभर आया होगा
उसने घबराके नज़र लाख बचाई होगी
दिल की लुटती हुई दुनिया नज़र आई होगी
मेज़ से जब मेरी तस्वीर हटाई होगी
हर तरफ़ मुझको तड़पता हुआ पाया होगा
छेड़ की बात पे अरमाँ मचल आए होंगे
ग़म दिखावे की हँसी में उबल आए होंगे
नाम पर मेरे जब आँसू निकल आए होंगे
सर न काँधे से सहेली के उठाया होगा
ज़ुल्फ़ ज़िद करके किसी ने जो बनाई होगी
और भी ग़म की घटा मुखड़े पे छाई होगी
बिजली नज़रों ने कई दिन न गिराई होगी
रँग चहरे पे कई रोज़ न आया होगा
यह गीत जितनी बार भी सुनो दिल को छू जाता है। आज तक शायद ही कभी इसे सुनकर मेरी आँखें न भरी हों।