मिलन रुत आई

अप्रैल 20, 2008

स्वर: उस्ताद अमानत अली ख़ान और फ़रीदा ख़ानुम

फूल-फूल ने ली अंगड़ाई कली-कली मुस्काई
मिलन रुत आई…

गुलशन-गुलशन में फूलों ने रंग नये बिखराए
बादल भी अपने दामन में भर-भर मौजें लाये
महफ़िल-महफ़िल गूँज उठी है खुशियों की शहनाई
मिलन रुत आई…

उजली-उजली किरणों से आँख हुई है रोशन
गया अंधेरा हुआ सवेरा चमका दिल का आँगन
होते होते रौनक में लबदीर हुई तनहाई
मिलन रुत आई…

दिल ने दिल से माँग लिया है चाहत का नज़राना
होठों पर भी आ पहुँचा है प्यार भरा अफ़साना
मेघ मल्हार के सुर मे भीगी खुशबू हर सू छाई
मिलन रुत आई…


आ मेरे प्यार की ख़ुशबू

मार्च 16, 2008

रचना: क़तील शिफ़ाई
स्वर: उस्ताद अमानत अली ख़ान

आ मेरे प्यार की ख़ुशबू
मंजिल पे तुझे पहुँचायें
चलता चल हमराही
मेरी ज़ुल्फ़ के साये साये
आ मेरे प्यार की ख़ुशबू

सूरज की तरह मैं
पर मुझमें धूप नहीं है
जो शोला बनकर
मेरा ऐसा रूप नहीं है
जो नज़रों को झुलसाये
आ मेरे प्यार की ख़ुशबू

मैं रात की आँख का तारा
मैं नूर का रोशन ठारा
मैं जागूँ रात के दिल में
जब सो जाये जग सारा
तब तेरी याद आ जाय
आ मेरे प्यार की ख़ुशबू

तू चुनता सिर्फ़ मुझी को
पहचान तुझे गर होती
इंसाफ़ से तू ख़ुद कहता
ये कंकर है ये मोती
मेरा प्यार तुझे समझाये
आ मेरे प्यार की ख़ुशबू


इंशा जी उठो अब कूच करो

मार्च 15, 2008

रचना: इब्ने इंशा
स्वर: उस्ताद अमानत अली ख़ान

इंशा जी उठो अब कूच करो
इस शहर में दिल को लगाना क्या

इस दिल के दरीदा दामन में
देखो तो सही सोचो तो सही
जिस झोली में सौ छेद हुये
उस झोली का फ़ैलाना क्या

शब बीती चाँद भी डूब चला
जंज़ीर पड़ी दरवाजे में
क्यों देर गये घर आये हो
सजनी से करोगे बहाना क्या

जब शहर के लोग न रस्ता दें
क्यों बन में न जा विश्राम करें
दीवानों की सी न बात करे
तो और करे दीवाना क्या


होंठों पे कभी उन के मेरा नाम ही आये

फ़रवरी 19, 2008

स्वर: उस्ताद अमानत अली ख़ान

होंठों पे कभी उन के मेरा नाम ही आये
आये तो सही बर-सर-ए-इल्ज़ाम ही आये
(बर == पर)

हैरान हैं लब बस्ता हैं दिलग़ीर हैं गुन्चे
ख़ुशबू की ज़ुबानी तेरा पैग़ाम ही आये
(लब बस्ता == होंठ बन्द होना, दिलग़ीर == उदास, गुन्चे == कली)

लम्हात-ए-मुसर्रत हैं तसव्वुर से गुरेज़ाँ
याद आये हैं जब बागम-ओ-आलम ही आये
(लम्हात-ए-मुसर्रत == खुशी के पल, तसव्वुर == इच्छा, गुरेज़ाँ == दूर भागना)

तारों से सज़ा लेंगे रह-ए-शहर-ए-तमन्ना
मक़दूर नहीं सुबहो चलो शाम ही आये
(मक़दूर == समर्थ होना)

यादों के वफ़ाओं के अक़ीदों के ग़मों के
काम आये जो दुनिया में तो इस नाम ही आये
(अक़ीदा == विश्वास)

क्या राह बदलने का ग़िला हम सफ़रों से
जिस रह से चले तेरे दर-ओ-बाम ही आये
(बाम == छज्जा)

थक हार के बैठे हैं सर-ए-कू-ए-तमन्ना
काम आये तो फिर जज़्बा-ए-नाकाम ही आये

बाक़ी न रहे साख़ अदा दश्त-ए-जुनूँ की
दिल में अगर अंदेशा-ए-अंजाम ही आये

१९२२ में जन्मे उस्ताद अमानत अली ख़ान, अख़्तर हुसैन ख़ान के पुत्र तथा पटियाला घराने के स्थापक अली बख़्श ख़ान के पौत्र थे।