हमको किस के ग़म ने मारा

जनवरी 29, 2008

शायर: मसरूर अनवर
स्वर: ग़ुलाम अली

दिल की चोटों ने कभी चैन से रहने न दिया;
जब चली सर्द हवा मैनें तुझे याद किया;
इसका रोना नहीं क्यों तुमने किया दिल बरबाद;
इसका गम है कि बहुत देर में बरबाद किया।

हमको किस के ग़म ने मारा, ये कहानी फ़िर सही।
किसने तोड़ा दिल हमारा, ये कहानी फ़िर सही।

उधर जुल्फ़ों में कंघी हो रही है ख़म निकलता है;
इधर रुकरुक के खिंचखिंच के हमारा दम निकलता है;
इलाही ख़ैर हो उलझन पे उलझन पड़ती जाती है;
न उनका ख़म निकलता है न हमारा दम निकलता है।

हमको किस के ग़म ने मारा, ये कहानी फ़िर सही।
किसने तोड़ा दिल हमारा, ये कहानी फ़िर सही।

दिल के लुटने का सबब, पूछो न सबके सामने;
नाम आयेगा तुम्हारा, ये कहानी फ़िर सही।

हमको किस के ग़म ने मारा, ये कहानी फ़िर सही।
किसने तोड़ा दिल हमारा, ये कहानी फ़िर सही।

दिलवालों क्या देख रहे हो इन राहों में;
अद्दे नज़र तक ये वीरानी साथ चलेगी;
रज्जे मियाँ तुम शाम से कैसे चुप बैठे हो;
कुछ तो बोलो ऐसी चुप से बात बढ़ेगी।

हमको किस के ग़म ने मारा, ये कहानी फ़िर सही।
किसने तोड़ा दिल हमारा, ये कहानी फ़िर सही।

नफ़रतों के तीर खाकर दोस्तों के शहर में;
हमने किस किस को पुकारा, ये कहानी फ़िर सही।

हमको किस के ग़म ने मारा, ये कहानी फ़िर सही।
किसने तोड़ा दिल हमारा, ये कहानी फ़िर सही।

क्या बताएं प्यार की बाज़ी वफ़ा की राह में;
कौन जीता कौन हारा, ये कहानी फ़िर सही।

हमको किस के ग़म ने मारा, ये कहानी फ़िर सही।
किसने तोड़ा दिल हमारा, ये कहानी फ़िर सही।

एक महफ़िल की रिकार्डिंग जिसमें ग़ुलाम  अली साहब ने ये ग़ज़ल गायी थी…


चुपके चुपके रात दिन

जनवरी 28, 2008

रचना: हसरत मोहानी
स्वर: ग़ुलाम अली

चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है
हमको अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है

बाहज़ारां इज़्तिराब-ओ-सदहज़ारां इश्तियाक
तुझसे वो पहले पहल दिल का लगाना याद है
(बाहज़ारां == हज़ार बार, इज़्तिराब == चिन्ता, सदहज़ारां == एक बार, इश्तियाक == मुलाकात)
(अर्थात् एक बार मिलने के लिये हज़ार बार की बेचैनी)

तुझसे मिलते ही वो कुछ बेबाक हो जाना मेरा (बेबाक = स्पष्ट बोलना)
और तेरा दाँतों में वो उँगली दबाना याद है

खींच लेना वो मेरा पर्दे का कोना दफ़्फ़ातन (दफ़्फ़ातन == अचानक)
और दुपट्टे से तेरा वो मुँह छिपाना याद है

जानकर सोता तुझे वो क़सा-ए-पाबोसी मेरा
और तेरा ठुकरा के सर वो मुस्कुराना याद है
(क़सा-ए-पाबोसी = पैर चूमने की कोशिश)

तुझ को जब तन्हा कभी पाना तो अज़राह-ए-लिहाज़
हाल-ए-दिल बातों ही बातों में जताना याद है
(अज़्राह-ए-लिहाज़ == सावधानी से)

जब सिवा मेरे तुम्हारा कोई दीवाना ना था
सच कहो क्या तुम को भी वो कारखाना याद है
(कारखाना == युग, समय)

ग़ैर की नज़रों से बचकर सब की मर्ज़ी के ख़िलाफ़
वो तेरा चोरीछिपे रातों को आना याद है

आ गया गर वस्ल की शब भी कहीं ज़िक्र-ए-फ़िराक़
वो तेरा रो-रो के मुझको भी रुलाना याद है
(वस्ल == मुलाक़ात, ज़िक्र-ए-फ़िराक़ == जुदाई का ज़िक्र)

दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिये
वो तेरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद है

देखना मुझको जो बर्गश्ता तो सौ सौ नाज़ से
जब मना लेना तो फिर ख़ुद रूठ जाना याद है
(बर्गश्ता = रूठा हुआ)

चोरी चोरी हम से तुम आकर मिले थे जिस जगह
मुद्दतें गुज़रीं पर अब तक वो ठिकाना याद है

बेरुख़ी के साथ सुनाना दर्द-ए-दिल की दास्तां
और तेरा हाथों में वो कंगन घुमाना याद है

वक़्त-ए-रुख़सत अलविदा का लफ़्ज़ कहने के लिये
वो तेरे सूखे लबों का थरथराना याद है

बावजूद-ए-इद्दा-ए-इत्तक़ा ‘हसरत’ मुझे
आज तक अहद-ए-हवस का ये फ़साना याद है
(इद्दा-ए-इत्तक़ा = धर्मनिष्ठता की शपथ, अहद-ए-हवस = चाहत के दिनों)

स्रोत: फ़ंडू ज़ोन चर्चा समूह

यह यू-ट्यूब वीडियो ग़ुलाम अली साहब के एक सजीव कार्यक्रम की रिकार्डिंग है। यद्यपि उन्होनें इस वीडियो में पूरी ग़ज़ल नहीं गायी है फ़िर भी यह “निक़ाह” फ़िल्म के गाने से बड़ा है।


अभी तो मैं जवान हूँ …

जनवरी 27, 2008

रचना: हफ़ीज़ जालंधरी
स्वर: मलिका पुखराज

लिपिबद्ध संस्करण (मूलस्रोत : बीबीसी हिन्दी)

अभी तो मैं जवान हूँ (3)
हवा भी ख़ुशगवार है, गुलों पे भी निखार है
तरन्नुमें हज़ार हैं, बहार पुरबहार है
कहाँ चला है साक़िया, इधर तो लौट इधर तो आ
अरे, यह देखता है क्या? उठा सुबू, सुबू उठा
सुबू उठा, पयाला भर पयाला भर के दे इधर
चमन की सिम्त कर नज़र, समा तो देख बेख़बर
वो काली-काली बदलियाँ , उफ़क़ पे हो गई अयाँ
वो इक हजूम-ए-मैकशाँ, है सू-ए-मैकदा रवाँ
ये क्या गुमाँ है बदगुमाँ, समझ न मुझको नातवाँ
ख़याल-ए-ज़ोह्द अभी कहाँ? अभी तो मैं जवान हूँ (3)

इबादतों का ज़िक्र है, निजात की भी फ़िक्र है
जनून है सबाब का, ख़याल है अज़ाब का
मगर सुनो तो शेख़ जी, अजीब शय हैं आप भी
भला शबाब-ओ-आशिक़ी, अलग हुए भी हैं कभी
हसीन जलवारेज़ हो, अदाएं फ़ितनाख़ेज़ हो
हवाएं इत्रबेज़ हों, तो शौक़ क्यूँ न तेज़ हो?
निगारहा-ए-फ़ितनागर , कोई इधर कोई उधर
उभारते हो ऐश पर, तो क्या करे कोई बशर
चलो जी क़िस्सा मुख़्तसर, तुम्हारा नुक़्ता-ए-नज़र
दरुस्त है तो हो मगर, अभी तो मैं जवान हूँ (3)

न ग़म कशोद-ओ-बस्त का, बुलंद का न पस्त का
न बूद का न हस्त का, न वादा-ए-अलस्त का (2)
उम्मीद और यास गुम, हवास गुम क़यास गुम
नज़र से आस-पास गुम, हमां बजुज़ गिलास गुम
न मय में कुछ कमी रहे, कदा से हमदमी रहे
निशस्त ये जमी रहे, यही हमा-हमीं रहे
वो राग छेड़ मुतरिबा (2), तरवफ़िज़ा आलमरुबा
असर सदा-ए-साज़ का, जिग़र में आग दे लगा (3)
हर इक लब पे हो सदा, न हाथ रोक साक़िया
पिलाए जा पिलाए जा, पिलाए जा पिलाए जा

अभी तो मैं जवान हूँ (3)

ये ग़श्त कोहसार की, ये सैर जू-ए-वार की
ये बुलबुलों के चहचहे, ये गुलरुख़ों के क़हक़हे
किसी से मेल हो गया, तो रंज-ओ-फ़िक्र खो गया
कभी जो वक़्त सो गया, ये हँस गया वो रो गया
ये इश्क़ की कहानियाँ, ये रस भरी जवानियाँ
उधर से महरबानियाँ, इधर से लन्तरानियाँ
ये आस्मान ये ज़मीं (2), नज़्ज़राहा-ए-दिलनशीं
उने हयात आफ़रीं, भला मैं छोड़ दूँ यहीं
है मौत इस क़दर बरीं, मुझे न आएगा यक़ीं
नहीं-नहीं अभी नहीं, नहीं-नहीं अभी नहीं

अभी तो मैं जवान हूँ (3)

ध्वनि संस्करण

यू-ट्यूब पर उपलब्ध यह वीडियो एक टीवी रिकार्डिंग है जिसमें मलिका पुखराज के साथ उनकी बेटी ताहिरा सईद ने भी अपनी आवाज दी है।

मलिका पुखराज का अतिसंक्षिप्त जीवनवृत्त (मुख्य स्रोत: विकीपीडिया)

मलिका पुखराज का जन्म १९१२ में जम्मू के निकट हुआ। आठ वर्ष की आयु में ही वह जम्मू के राजा हरि सिंह के दरबार में सम्मिलित हो गयीं। संगीत शिक्षा उन्होनें उस्ताद अल्लाह बख़्श (बड़े गुलाम अली ख़ान के पिता) से ली। उनका विवाह लाहौर में सईद शब्बीर हुसैन शाह से हुआ और उन्होंने चार बेटों और दो बेटियों को जन्म दिया। उनकी एक बेटी ताहिरा सईद भी एक सुप्रसिद्ध गायिका के रूप में सामने आयीं। आठ दशकों तक अपनी ठुमरी,  ग़ज़ल, भजन और पहाड़ी लोकगीतों से सबके दिलों पर राज करने के बाद २००४  में लम्बी बीमारी के बाद उनका निधन हो गया।


बैग पर एयरलाइन्स का टैग

जनवरी 12, 2008

हमारे देश ने पिछले १०-१५ वर्षों में काफ़ी तरक्की की है। मुख्यतः सॉफ्टवेयर धूम के कारण देश के खासकर मध्यम वर्ग के लोगों में बहुत समृद्धि आयी है। पर इन सबके साथ आये सांस्कृतिक बदलाव और उसकी बदहजमी की झलक यहाँ-वहाँ देखने को मिल ही जाती है। अब सामान पर लगे एयरलाइन्स के टैग को ही ले लीजिये। यात्रा के बाद भी उसे न हटाया जाना किसी न किसी स्तर पर यह प्रयोक्ता की इस चेष्टा को उजागर करता है कि हाँ भाई लोगों हम भी हवाई जहाज की यात्रा कर चुके हैं। अपने मोबाइल को बिना वजह सार्वजनिक स्थान पर निकाल कर देखना, लघु संदेश पढ़ना भी कुछ इसी प्रकार का प्रयास है। यह सब एकदम ऐसा लगता है मानो आपने किसी १९ वीं सदी के गाँव से आये आदमी को नयी वी.आई.पी की चड्ढी दी हो और सबको दिखाने के उद्देश्य से उसने वह पतलून के ऊपर से पहन ली हो। या फ़िर रेलगाड़ी के वातानुकूलित डिब्बे में सफ़र करके अपने आप को बहुत परिष्कृत दिखाना, बोलना कि “ये स्लीपर कोच कितने गन्दे और अनकम्फ़र्टेबल होते हैं, पता नहीं लोग कैसे सफ़र करते हैं उसमें” जैसे खुद पहले कभी उसमें गये ही न हों। सम्पन्नता बुरी नहीं है, परन्तु उसे पाकर अपना अतीत, और सभ्यता भुला देना घातक सिद्ध हो सकता है।


जयंती कुमारेश : सुप्रसिद्ध वीणा वादिका

जनवरी 11, 2008

इस बार नव वर्ष की पूर्व संध्या पर कर्णाटक शैली की सुप्रसिद्ध वीणा वादिका श्रीमति जयंती कुमारेश को सुनने का अवसर प्राप्त हुआ। जे एन सी के इंजीनियरिंग मेकेनिक्स यूनिट द्वारा आयोजित द्विदिवसीय सेमिनार “फ़्लूड डेज़” में इस संगीत-संध्या का आयोजन किया गया। श्रीमति जयंती कुमारेश आज की सर्वोत्तम और बहुविधिक वीणा वादिका के रूप में जानी जाती हैं। संगीत को समर्पित परिवार में जन्मीं जयंती सुप्रसिद्ध वायलिन वादक श्री लालगुडी जयरामन की भतीजी हैं। संगीत शिक्षा उन्होंने पद्मावती अनंतगोपालन से ली और उनके साथ देश विदेश में कई संगीत समारोह भी किये। उनके पति श्री कुमारेश भी एक प्रसिद्ध वायलिन वादक हैं। यद्यपि मुझमें शास्त्रीय संगीत की कोई खास समझ नहीं है पर उनका संगीत काफ़ी कर्णप्रिय लगा और डेढ़ घन्टे कैसे बीते पता ही नहीं चला। संयोगवश मुझे यू-ट्यूब पर जयंती जी के कुछ वीडियो मिल गये जिन्हें मैं नीचे जोड़ रहा हूँ आप चाहें तो सुन सकते हैं।