अताउल्लाह ख़ान

जुलाई 12, 2008

स्वर: अताउल्लाह ख़ान

दूरों दूरों सानु तरसांदे ओ, असाँ बुलाये ते नि आंदे ओ

इश्क़ में हम तुम्हें क्या बतायें

सब माया है

बालों बतियाँ वे माही


आई आई टी कानपुर में मंगनियर लोकगीत कार्यक्रम

जुलाई 7, 2008

पिछले सप्ताहांत पर आई आई टी कानपुर के रासायनिक अभियांत्रिकी विभाग द्वारा आयोजित द्विदिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन केम्फ़ेरेन्स 08 में रोजे ख़ान मंगनियर मंडली द्वारा एक राजस्थानी लोकगीतों का कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया। मंगनियर स्वयं को राजपूतों का वंशज मानते हैं और थार (जैसलमेर और बाड़मेर) के सर्वोत्तम संगीतकारों मे से हैं। एक और ध्यान देने योग्य पहलू यह है कि हमेशा से ही इनके संरक्षक हिन्दू रहे हैं परन्तु मंगनियर सदैव मुस्लिम होते हैं।

प्रस्तुत है इसी कार्यक्रम के कुछ अंश:

महाराज गजानन आओ रे, म्हारी मंडली में रंग बरसाओ रे

निंबुड़ा निंबुड़ा

दमादम मस्त क़लन्दर

रंगीलो म्हारो

राजस्थानी अलगोजा (दो बाँसुरी)

राजस्थानी बीन


होके मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा

जुलाई 4, 2008

रचना: कैफ़ी आज़मी
स्वर: भूपिन्दर, रफ़ी, तलत महमूद और मन्ना डे

होके मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा
ज़हर चुपके से दवा जानके खाया होगा

दिल ने ऐसे भी कुछ अफ़साने सुनाए होंगे
अश्क़ आँखों ने पिये और न बहाए होंगे
बन्द कमरे में जो खत मेरे जलाए होंगे
एक इक हर्फ़ जबीं पर उभर आया होगा

उसने घबराके नज़र लाख बचाई होगी
दिल की लुटती हुई दुनिया नज़र आई होगी
मेज़ से जब मेरी तस्वीर हटाई होगी
हर तरफ़ मुझको तड़पता हुआ पाया होगा

छेड़ की बात पे अरमाँ मचल आए होंगे
ग़म दिखावे की हँसी में उबल आए होंगे
नाम पर मेरे जब आँसू निकल आए होंगे
सर न काँधे से सहेली के उठाया होगा

ज़ुल्फ़ ज़िद करके किसी ने जो बनाई होगी
और भी ग़म की घटा मुखड़े पे छाई होगी
बिजली नज़रों ने कई दिन न गिराई होगी
रँग चहरे पे कई रोज़ न आया होगा

यह गीत जितनी बार भी सुनो दिल को छू जाता है। आज तक शायद ही कभी इसे सुनकर मेरी आँखें न भरी हों।


मीना कुमारी : I Write I Recite

जून 26, 2008

रचना और स्वर: मीना कुमारी
संगीत: ख़य्याम

1. चांद तन्‍हा है आसमां तन्‍हा

2. आबलापा कोई इस दश्त में आया होगा

3. यूँ तेरी रहगुज़र से दीवाना वार गुज़रे

4. मेरा माँझी मेरी तन्हाई का अंधा शिग़ाफ़

5. ये नूर कैसा है राख़ का सा रंग पहने

6. आग़ाज़ तो होता है अंज़ाम नहीं होता

7. पूछ्ते हो तो सुनो कैसे बसर होती है

8. टुकड़े टुकड़े दिन बीता धज्जी धज्जी रात मिली


तुम्हें दिल्लग़ी भूल जानी पड़ेगी

जून 25, 2008

स्वर: नुसरत फ़तेह अली ख़ान

तुम्हें दिल्लग़ी भूल जानी पड़ेगी, मोहब्बत की राहों में आकर तो देखो

तड़पने पे मेरे न फिर तुम हँसोगे, कभी दिल किसी से लगा कर तो देखो

होठों के पास आये हँसी क्या मज़ाल है, दिल का मुआमला है कोई दिल्लग़ी नहीं

ज़ख़्म पे ज़ख़्म खा के जी अपने लहू के घूंट पी, आह न कर लबों को सी, इश्क़ है दिल्ल्ग़ी नहीं

दिल लगा कर पता चलेगा तुम्हें, आशिक़ी दिल्लगी नहीं होती

कुछ खेल नहीं है इश्क़ की लाग, पानी न समझिये आग है आग

ख़ूँ रुलायेगी ये लगी दिल की, खेल समझो न दिल्लगी दिल की

ये इश्क़ नहीं आसाँ बस इतना समझ लीजै, इक आग़ का दरिया है और डूब के जाना है

वफ़ाओं की हमसे तवक्को नहीं है मगर एक बार आज़मा कर तो देखो

ज़माने को अपना बना कर तो देखा हमें भी तुम अपना बनाकर तो देखो